Hazrat ibrahim ko Aag me dala na

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आग का ठंडा हो जाना

इब्राहीम की कहानी

घटना विवरण
आग में फेंकना
  • इब्राहीम को नमरूद और उसकी क़ौम ने आग में फेंका।
  • आग को हुक्म दिया गया कि वह इब्राहीम को न जलाए।
  • आग उनके लिए 'बरदंव-व सलामा' बन गई।
इब्राहीम की  हिम्मत
  • इब्राहीम ने दुश्मनों की धमकियों की परवाह नहीं की।
  • वह हक़ के एलान में मस्त रहे।
हिजरत का इरादा
  • इब्राहीम ने अल्लाह की आवाज़ सुनने के लिए हिजरत का इरादा किया।
  • उन्होंने फ़लस्तीन की ओर हिजरत की।
आज़र से अलगाव
  • इब्राहीम ने अपने बाप आज़र से अलग होने का एलान किया।
  • अल्लाह ने बताया कि आज़र ईमान नहीं लाएगा।
बुतों की तोड़-फोड़
  • इब्राहीम ने बुतों को तोड़ने का काम किया।
  • उन्होंने कहा कि सबसे बड़े बुत ने यह किया।

इस मरहले पर पहुंच कर इब्राहीम की जद्दोजेहद का मामला ख़त्म हो गया और अब दलीलों की ताक़त के मुक़ाबले में माद्दी ताक़त व सतवत ने मुजाहरा शुरू कर दिया, बाप उसका दुश्मन, लोग उसके मुखालिफ़ और राचिन का बादशाह उसे परेशान करने को तैयार, एक हस्ती और चारों और के मुखालफत की आवाज, दुश्मनी के नारे और नफरत व भारत के साथ कड़ा बदला और ख़ौफ़नाक सज़ा के इरादे, ऐसे वक़्त में उसकी मदद कौन करे और उसकी हिमायत का सामान कैसे जुटे ?मगर इब्राहीम को न इसकी परवाह थी और न उसका डर। वह इसी तरह बे-ख़ौफ़ व ख़तर और मलामत करने वालों की मलामत से बेनियाज, हक़ के एलान में मस्त और रुश्द व हिदायत की दावत में लगे हुए थे। अलबत्ता ऐसे नाजुक वक़्त में जब तमाम माद्दी सहारे ख़त्म, दुन्यवी अस्वाव नापैद और हिमायत व नुसरत के ज़ाहिरी अस्बाब मफ़्क़ूद हो चुके थे, इब्राहीम को उस वक़्त भी एक ऐसा बड़ा जबरदस्त सहारा मौजूद था, जिसको तमाम सहारों का सहारा और तमाम मददों का मदद करने वाला कहा जाता है और वह एक अल्लाह का सहारा था। उसने अपने जलीलुल क़द्र पैग़म्बर, क़ौम के बड़े दर्जे के हादी और रहनुमा को बे-यार व मददगार न रहने दिया और दुश्मनों के तमाम मंसूबों को ख़ाक में मिला दिया।



हुआ यह कि नमरूद और क़ौम ने इब्राहीम की सज़ा के लिए एक मख़्सूस जगह पर कई दिन लगातार आग धधकाई यहां तक कि उसके शोलों से आस-पास की चीजें तक झुलसने लगीं। जब इस तरह बादशाह और क्रीम को पूरा इत्मीनान हो गया कि अब इब्राहीम के इससे बच निकलने की कोई शक्ल बाक़ी नहीं रही, तब एक गोफन में इब्राहीम को बिठा कर दघकती हुई आग में फेंक दिया गया।उस वक़्त आग में जलाने की तासीर बख़्शने वाले ने आग को हुक्म दिया कि वह इब्राहीम पर अपने जलाने का असर न करे। नारी होते हुए और (आग के) अनासिर का मज्मूआ होते हुए भी उसके हक़ में सलामती के साथ सर्द पड़ जाए।आग उसी वक़्त हजरत इब्राहीम के हक़ में 'बरदंव-व सलामा' बन गई और दुश्मन उनको किसी क़िस्म का नुक्सान न पहुंचा सके और इब्राहीम दहकती आग में सालिम व महफूज दुश्मनों के नरगे से निकल गए। 'दुश्मन अगर क़वीस्त, निगहबां क़वी तरअस्त'राचिन का बादशाह उसे परेशान करने को तैयार, एक हस्ती और चारों और के मुखालफत की आवाज, दुश्मनी के नारे और नफरत व भारत के साथ कड़ा बदला और ख़ौफ़नाक सज़ा के इरादे, ऐसे वक़्त में उसकी मदद कौन करे और उसकी हिमायत का सामान कैसे जुटे ?मगर इब्राहीम को न इसकी परवाह थी और न उसका डर। वह इसी तरह बे-ख़ौफ़ व ख़तर और मलामत करने वालों की मलामत से बेनियाज, हक़ के एलान में मस्त और रुश्द व हिदायत की दावत में लगे हुए थे। अलबत्ता ऐसे नाजुक वक़्त में जब तमाम माद्दी सहारे ख़त्म, दुन्यवी अस्वाव नापैद और हिमायत व नुसरत के ज़ाहिरी अस्बाब मफ़्क़ूद हो चुके थे, इब्राहीम को उस वक़्त भी एक ऐसा बड़ा जबरदस्त सहारा मौजूद था, जिसको तमाम सहारों का सहारा और तमाम मददों का मदद करने वाला कहा जाता है और वह एक अल्लाह का सहारा था। उसने अपने जलीलुल क़द्र पैग़म्बर, क़ौम के बड़े दर्जे के हादी और रहनुमा को बे-यार व मददगार न रहने दिया और दुश्मनों के तमाम मंसूबों को ख़ाक में मिला दिया।

हुआ यह कि नमरूद और क़ौम ने इब्राहीम की सज़ा के लिए एक मख़्सूस जगह पर कई दिन लगातार आग धधकाई यहां तक कि उसके शोलों से आस-पास की चीजें तक झुलसने लगीं। जब इस तरह बादशाह और क्रीम को पूरा इत्मीनान हो गया कि अब इब्राहीम के इससे बच निकलने की कोई शक्ल बाक़ी नहीं रही, तब एक गोफन में इब्राहीम को बिठा कर दघकती हुई आग में फेंक दिया गया।उस वक़्त आग में जलाने की तासीर बख़्शने वाले ने आग को हुक्म दिया कि वह इब्राहीम पर अपने जलाने का असर न करे। नारी होते हुए और (आग के) अनासिर का मज्मूआ होते हुए भी उसके हक़ में सलामती के साथ सर्द पड़ जाए।आग उसी वक़्त हजरत इब्राहीम के हक़ में 'बरदंव-व सलामा' बन गई और दुश्मन उनको किसी क़िस्म का नुक्सान न पहुंचा सके और इब्राहीम दहकती आग में सालिम व महफूज दुश्मनों के नरगे से निकल गए। 'दुश्मन अगर क़वीस्त, निगहबां क़वी तरअस्त'(दुश्मन अगर ताक़तवर है, निगहबान उससे ज़्यादा ताक़त वाला है)इस जगह एक मजहबी इंसान के दिल में इत्मीनान और सुकूने ख़ातिर के लिए यह काफी है कि वह आग के 'बर्दव-व सलामा' (ठंडी और सलामती वाली) हो जाने को इसलिए सही और हक़ीक़त पर मन्नी समझे कि उसने अपनी अक्ल और शऊर का एक तो इस मामले में इम्तिहान कर लिया है कि कुरआन अजीज की तालीम वय इलाही की तालीम है और उसको लाने वाली हस्ती की जिंदगी का हर पहलू पैग़म्बराना मासूमियत के साथ जुड़ा हुआ है और यह कि वह जिन मोजजाना हक़ीक़तों की इत्तिला देता और अल्लाह की वय के जरिए हम को सुनाता है, वे अक़्ल के लिए अगरचे हैरान कर देने वाली हैं, लेकिन अक़्ल की निगाह में महाल और नामुम्किन नहीं, इसलिए इस मुख्बिरे सादिक (की जिसकी जिंदगी की सदाक़त का हर पहलू से इम्तिहान कराया गया है) कि इस क़िस्म की खबरें बेशक सही और हक़ हैं और कैसरे रूम हिरवल आजम (हरक्यूवस) के क्रौल के मुताबिक़ कि 'जो आदमी इंसानों के साथ झूठ नहीं बोलता और उससे दगा न फ़रेब नहीं करता, वह एक लम्हे के लिए भी अल्लाह की जानिब किसी ग़लत बात को मंसूब नहीं कर सकता और कभी उस पर झूठ बोलने की जुर्रात नहीं कर सकता।' और मजहबी जिंदगी में साफ़ और सीधी राह भी यही है कि जिस मजहब की मुकम्मल तालीम को अक़्ल की कसौटी पर परख कर हर तरह इत्मीनान के क़ाबिल पा लिया जाए, उसकी बताई हुई कुछ ऐसी बातों पर, जो अक़्ल के लिए सिर्फ़ हैरानी में डालने वाली हों, मगर इसके नजदीक मुहाले जाती और नामुम्किन जैसी न हों, फ़लसफ़ियाना छेड़खानियों के बगैर ईमान ले आया जाए और साहिबे वय की इस यक्तीनी और गैर-मश्कूक इत्तिला को सूरज की रोशनी से ज़्यादा रोशन समझा जाए और यकीन रखा जाए कि तमाम चीजों में ख़वास और तासीरात पैदा करने वाले अल्लाह में यह भी कुदरत है कि जब चाहे, उनकी दी हुई तासीर और ख़ास्से को सलब कर ले और जब चाहे दूसरी कैफ़ियतों के साथ बदल डाले। माद्दापरस्तों के लिए अगर यह राह इत्मीनान वाली न हो और फ़लसफ़े के शैदाई मजहब के इस मस्अले को भी फ़लसफ़ियाना मूशगाफ़ियों (बाल की खाल निकालने) से पाक न रहने देना चाहते हों, तो उनके लिए भी इस मोजजे से इंकार की कोई गुंजाइश नहीं है इसलिए कि हम यह मान रहे हैं कि आग की तबई ख़ासियत जला देना है और जो चीज़ भी उसमें पड़ेगी, जल जाएगी, लेकिन इसकी क्या वजह कि कुछ कपड़े और वे चीजें जिनको 'फ़ायर प्रूफ़' कहा जाता है, आग की लपटों के अन्दर क्यों महफूज रहती हैं और उनको आग जला कर क्यों नहीं ख़ाकस्तर (धूल में मिला देना) बना देती।

तुम कहोगे कि आग दस्तूर के मुताबिक़ जलाने की ख़ासियत रखती है, मगर कपड़े या चीज़ पर एक ऐसा मसाला लगा दिया गया है, जिस पर आग अपना असर नहीं कर सकती, यह नहीं कि आग ने अपने जलाने की ख़ासित ख़त्म कर दी है।

तो एक मजहबी इंसान के लिए इसी तरह आपके फ़लसफ़ियाना रंग में यह जवाब देने का क्यों हक़ नहीं है कि नमरूद और उसकी क़ौम की धधकती आग में जलाने की ख़ासियत पहले की तरह वैसे ही बाक़ी थी, जैसे आग के अनासिर (तत्त्वों) में मौजूद है, मगर इब्राहीम के जिस्म के लिए बे-असर साबित हुई, फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि तुम्हारे 'फ़ायर प्रूफ़' में इंसान की सोची हुई तदबीरों का दखल है और इसलिए हर सीखने वाले को एक फ़न की तरह सीख लेने का मौक़ा हासिल है और इब्राहीम के जिस्म का आग से महफूज हो जाना बे-बास्ता अल्लाह की तदबीर के ज़ेरे असर था और इस क़िस्म का अमल पैग़म्बर की सच्चाई और दुश्मनों के मुक़ाबले में उसकी बरतरी के लिए कभी-कभी हिक्मत के तक़ाज़ों के तौर पर उसकी तरफ़ से सामने आ जाता और शरीअत की इस्तिलाह में 'मोजजा' गिना जाता है। बेशक वह न फ़न होता है और न वसाइल व अस्बाब से पैदा की हुई तदबीरों का मोहताज, पस अल्लाह की मख्लून 'इंसान' को अगर यह कुदरत हासिल है कि किसी चीज की तबई ख़ासियतों को कुछ चीजों पर असरअंदाज़ न होने दे, तो चीजों के ख़वास के पैदा करने वाले को क्यों यह कुदरत हासिल नहीं कि वह किसी ख़ास मौके पर चीज की तासीर को अमल से रोक दे।

और अगर आज साइंस की खोज के मुताबिक़ फ़िज़ा में ऐसी गैसें मौजूद हैं, जिनके बदन पर असर करने से आग के जलन से महफूज रहा जा सकता है, तो गैसों के पैदा करने वाले खालिक के लिए कौन-सी ऐसी रुकावट है कि नमरूद की धधकती आग में उनको इब्राहीम तक न पहुंचा दे और इस तरह आग को इब्राहीम के हक़ में 'बरदंव-व सलामा' (ठंडी व सलामती) न बना दे।

आज भी हो जो ब्राहीम का ईमां पैदा आग कर सकती है अन्दाजे गुलिस्तां पैदा।मुख़्तसर यह कि बदबख़्त क़ौम ने कुछ न सुना और किसी भी तरह रुश्द व हिदायत को कुबूल न किया और इब्राहीम की बीवी हज़रत सारा और उनके बिरादरजादा हजरत लूत के अलावा कोई एक भी ईमान नहीं लाया। तमाम क़ौम ने हज़रत इब्राहीम को जला देने का फैसला कर लिया और दहकती आग में डाल दिया, लेकिन अल्लाह तआला ने दुश्मनों के इरादों को जलील व रुसवा करके हजरत इब्राहीम के हक़ में आग को 'बरदंव-व सलामा' बना दिया, तो अब हजरत इब्राहीम ने इरादा किया कि किसी दूसरी जगह जाकर पैग़ामे इलाही सुनाएं और हक़ की दावत पहुंचाएं और वह सोचकर 'फ़िदान' आराम से हिजरत का इरादा कर लिया।(अस्साफ़्फ़ात 37 : 99)

तर्जुमा- 'और इब्राहीम ने कहा, मैं जाने वाला हूं अपने परवरदिगार की तरफ़, क़रीब ही वह मेरी रहनुमाई करेगा।'

यानी अब मुझे किसी ऐसी आबादी में हिजरत करके चला जाना चाहिए, जहां अल्लाह की आवाज़ हक़ पसन्द कान से सुनी जाए, अल्लाह की जमीन तंग नहीं है, यह नहीं और सही, मेरा काम पहुंचाना है, अल्लाह अपने दीन की इशाअत का सामान ख़ुद पैदा कर देगा।और किलदानीयीन की ओर हिजरत

बहरहाल हजरत इब्राहीम अपने बाप आजर और क़ौम से जुदा होकर फ़रात के पच्छिमी किनारे के क़रीब एक बस्ती में चले गए जो आज किलदानीयीन के नाम से मशहूर है। यहां कुछ दिनों क़ियाम किया और हजरत लूत और हजरत सारा दोनों सफ़र में साथ रहे। कुछ दिनों के बाद यहां से हरान या हारान की ओर चले गए और वहां 'दीने हनीफ़' की तब्लीग शुरू कर दी, मगर इस मुद्दत में बराबर अपने बाप आजर के लिए बारगाहे इलाही में इस्तग्फ़ार करते और उसकी हिदायत के लिए दुआ मांगते रहे और यह सब कुछ इसलिए किया कि वे निहायत दिल के नर्म, रहीम और बहुत ही नर्म दिल और बुर्दबार थे। इसलिए आजर की ओर से हर क़िस्म की अदावत के मुजाहरों के बावजूद उन्होंने आज़र से यह वायदा किया था कि अगरचे मैं तुझसे जुदा हो रहा हूं और अफ़सोस कि तूने अल्लाह की रुश्द व हिदायत पर तवज्जोह न की, फिर भी मैं बराबर तेरे हक़ में अल्लाह की मग्फ़िरत की दुआ करता रहूंगा। आखिरकार हजरत इब्राहीम को अल्लाह की वह्य ने मुत्तला किया कि आजर ईमान लाने वाला नहीं है और यह उन्हीं लोगों में से है जिन्होंने अपनी नेक इस्तेदाद को फ़ना करके खुद को उसका मिस्दाक़ बना लिया।

तर्जुमा- 'अल्लाह ने मोहर लगा दी उनके दिलों पर और उनके कानों पर और उनकी आंखों पर परदा है।'(अल-बक्ररः 2/7)

हज़रत इब्राहीम को जब यह मालूम हो गया तो आपने आज़र से अपने अलग होने का साफ़ एलान कर दिया।

फ़लस्तीन की ओर हिजरत

हज़रत इब्राहीम इस तरह तब्लीग़ करते-करते फ़लस्तीन पहुंचे। इस सफ़र में भी उनके साथ हजरत सारा, हज़रत लूत और लूत की बीवी थीं। हज़रत इब्राहीम फ़लस्तीन के पच्छिमी हिस्से में ठहरे, उस जमाने में यह इलाक़ा कन्आनियों के इक़्तिदार में था, फिर क़रीब ही शीकम (नाबलस) में चले गए और वहां कुछ दिनों ठहरे रहे, इसके बाद यहां भी ज़्यादा दिनों क़ियाम नहीं फ़रमाया और मग्रिब की तरफ़ ही बढ़ते चले गए, यहां तक कि मिस्र तक जा पहुंचे।

हज़रत इब्राहीम से मुताल्लिक़ दूसरे मसुअले हदीस की किताबों में हज़रत इब्राहीम के ताल्लुक़ से इस तरह कहा गया है कि-'नहीं झूठ बोला कभी हरगिज़ इब्राहीम, मगर तीन झूठ'(बुखारी शरीफ तप्रसील यह है-

1. हज़रत इब्राहीम की तबियत की खराबी इब्राहीम के वाक्रियों में कुरआन ने इस मौके पर, जबकि इब्राहीम और क़ौम के कुछ लोगों के दर्मियान मेले की शिर्कत के लिए बात-चीत हो रही थी, इब्राहीम का क़ौल नक़ल किया है- 'क़ा-ल इन्नी सक्रीम' (इब्राहीम ने फ़रमाया, मैं बीमार हूं) इस जुम्ले से एक खाली जेहन इंसान एक लम्हे के लिए भी यह नहीं सोच सकता कि इसमें झूठ का भी हिस्सा हो सकता है, क्योंकि इसमें जिक्र 'तबियत की अलालत' का है, जिसको इब्राहीम ही खूब जान सकते हैं। इसमें दूसरे को खामखाही शक और तरद्दुद का कौन-सा मौक़ा है, यहां तक कि अगर एक आदमी जाहिरी निगाहों में तन्दुरुस्त नजर आता हो, तब भी जरूरी नहीं है कि वह वाक़ई तन्दुरुस्त है। हो सकता है, उसका मिजाज किसी वजह से एतदाल की हद पर न हो और ऐसी तक्लीफ़ में पड़ा हो जिसका इज़्हार किए बगैर दूसरा उसको न समझ सके।

2. बुतों की तोड़-फोड़-बुतों की तोड़-फोड़ के सिलसिले में जब इब्राहीम से मालूम किया गया तो हजरत इब्राहीम का जवाब इस तरह नक़ल किया गया है-

तर्जुमा 'इब्राहीम ने कहाः बल्कि इनमें से सबसे बड़े बुत ने किया है, पस इनसे पूछो, अगर ये बोल सकते हैं।'(अबिया 21 : 63)

इस जवाब में झूठ की मिलावट इसलिए नहीं हो सकती कि दो अलग-अलग ख्याल वाले इंसानों में अगर मुनाजरा और ख्यालात के तबादले की नौबत आ जाती है तो मामूली हर्फ़ की आगाही रखने वाला भी इस हक़ीक़त को जानता है कि अपने दुश्मन को उसकी ग़लती पर मुतनब्बह करने और लाजवाब कर देने का बेहतरीन तरीक़ा यह है कि उसकी मानी हुई बातों में से किसी माने हुए अक़ीदे को सही फ़र्ज करके इस तरह उसका इस्तेमाल करे कि उसका फल और नतीजा दुश्मन के ख़िलाफ़ और अपने मुवाफ़िक़ जाहिर हो। इब्राहीम ने यही किया। उनकी क्रौम का यह अक़ीदा था कि उनके देवता सब कुछ सुनते और हमारी मुरादों को पूरा करते हैं, वे अपने पुजारियों और अपने से अक़ीदत रखने वालों से खुश और अपने दुश्मनों और


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