समूद क़ौम
हज़रत सालेह अलेहिस्सलाम
समूद, क़ौम के वही लोग हैं जो पहले आद की हलाकत के बाद हज़रत हूद के साथ बच गए थे और उनकी नस्ल आदे सानिया (द्वितीय आद) कहलाई। उनको 'समूदे इरम' भी कहा गया-
समूद की बस्तियां
समूद की आबादियां हिज्र में थी। हिजाज़ और शाम के दर्मियान वादी कुरा तक जो मैदान नज़र आता है, यह सब उनके रहने की जगह है। समूद को बस्तियों के खंडर और निशान आज तक मौजूद हैं। इनकी खास बात यह है कि इन बस्तियों में मकान पहाड़ों को काट कर बनाए गए थे, गोया समृद तानीरात के मामले में बहुत ज़्यादा माहिर थे।
समूद का ज़माना
समूद के ज़माने के मसले के बारे में कोई तै शुदा बाक़ायदा वक़्त नहीं बताया जा सकता, अलबता यक़ीनी तौर पर कहा जा सकता है कि इनका ज़माना हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम से पहले का ज़माना है।
समूदियों का मज़हब
समूद अपने बुतपरस्त पुरखों की तरह बुतपरस्त थे। वे ख़ुदा के अलावा बहुत से बातिल माबूदों के परस्तार थे और शिर्क में डूबे हुए थे। इसलिए उनकी इस्लाह के लिए भी और उन पर हक़ वाज़ेह करने के लिए भी उन्हीं के क़बीले में से हज़रत सालेह को नसीहत करने वाला पैग़म्बर और रसूल बनाकर भेजा, ताकि वह उनको सीधे रास्ते पर लाए, उन पर वाजेह करे कि कायनात की हर चीज़ अल्लाह के एक होने और अकेले होने पर गवाह है। उन्हें अल्लाह की नेमत याद दिलाए और बताए कि परस्तिश और इबादत के लायक़ एक ज़ात के अलावा दूसरा कोई नहीं है।
कुरआन मजीद में आए क्रिरसों का मतलब
कुरआन मजीद की यह सुन्नत है कि वह इंसानों की हिदायत के लिए पिछली कौमों के और उन्हें हिदायत के रास्ते पर लगाने के बकिए और हालात बयान करके नसीहतों और बाजों का सामान जुटाता है, ताकि वह सलूर हो सके कि जिन उम्मतों ने उनकी बातों का इंकार किया, और उनका नजाक उड़ाया और उन्हें झुठलाया, तो अल्लाह तजाला ने जहने साई स्कूल की तस्दीक के लिए कभी अपने आप और कभी क्रीम के मांगा करने पर ऐिसी निशानियां नाज़िल फ़रमाई जो नवियों और रसूलों की तस्दीक की बाजार कनी और 'मोजजा' कहलाई, लेकिन अगर कौम ने इस निशानी और सीजजा के बाद भी झुठलाने को न छोड़ा और न दुश्मनी छोड़ी, बल्कि जिद पर बाड़े रहे, तो फिर 'अल्लाह के अजाब' ने आकर उनकी तबाह वहलाद कर दिया और उनके वाकियों को आने वाली क्रीम के लिए इदरत व नसीहत का सामान बना दिया।
अल्लाह की ऊंटनी
हजरत सालेह अपनी कोम को बार-बार समझाते रहे, कोम पर बिल्कुल असर न हुआ, बल्कि उसकी दुश्मनी तरक्की पानी रखी और उसका विरोध बढ़ता ही रहा और वह किसी तरह बुतपरस्ती से बात न आई। अगरचे एक छोटी और कमज़ोर जमाज़त ने ईमान कुबूल कर लिया और वह मुसलमान हो गई, मगर क्रीम के सरदार और बड़े-बड़े सरमायादार उसी तरह बातिल-परस्ती पर क्रायम रहे और उन्होंने दी हुई हर किस्म की नेमतों का शुक्रिया अदा करने के बजाए नाशुक्री का तरीका अपना लिया। वे हजरत सालेह १ का मजाक उड़ाते हुए कहा करते कि सालीह। अगर हम वातिल परस्त होते, अल्लाह के सही मजहब के ईकारी होते और उसके पसंदीदा तरीक पर कायम न होते, ती आज हमको यह सोने-चांदी की बहुतात, हरे-भरे वाता और दूसरी नेमतें हासिल न होतीं। तुम खुद को और अपने मानने वालों को देखो और फिर उनकी तंगहाली और गुर्वत पर नजर करी और बतलाजी कि
अल्लाह के प्यारे और मक़बूल कौन हैं? हजरत सालेह फ़रमाते कि तुम अपने इस ऐश और अमीरी पर शेखी न मारो और अल्लाह के सच्चे रसूल और उसके सच्चे दीन का मजाक न उड़ाओ, इसलिए अगर तुम्हारे घमंड और दुश्मनी का यही हाल रहा, तो पल में सब कुछ फ़ना हो जाएगा और फिर न तुम रहोगे और न यह तुम्हारा समाज, बेशक ये सब अल्लाह की नेमते हैं, बशर्ते कि इनके हासिल करने वाले उसका शुक्र अदा करें और उसके सामने सरे नियाज़ झुकाएं और बेशक यही अजाब व लानत के सामान हैं, अगर इनका इस्तिक़बाल शेखी व गुरूर के साथ किया जाए। इसलिए यह समझना ग़लती है कि ऐश का हर सामान अल्लाह की ख़ुश्नूदी का नतीजा है।
समूद को यह हैरानी थी कि यह कैसे मुम्किन है कि हमीं में का एक इंसान अल्लाह का पैग़म्बर बन जाए और वह अल्लाह के हुक्म सुनाने लगे। वे बड़े ताज्जुब से कहते- तर्जुमा - 'कि हमारी मौजूदगी में उस पर (खुदा की) नसीहत उतरती है।
(साद 38: 8)
बानी अगर ऐसा होना ही था तो इसके अल हम थे, न कि सालेह और कभी अपनी क़ौम के कमज़ोर लोगों (जो कि मुसलमान हो गए थे) को ख़िताब करके कहते-
तर्जुमा - 'क्या तुमको यक़ीन है कि बिला शुबहा सालेह अपने परवरदिगार का रसूल है?'और मुसलमान जवाब देते-
तर्जुमा- 'बेशक हम तो इसके लाए हुए पैग़ाम पर ईमान रखते हैं।
(अल-आराफ़ 9 : 75)
तब ये क़ौम के इंकार करने वाले (समूद क़ौम) गुस्से में कहते : तर्जुमा- 'बेशक हम तो उस चीज़ का जिस पर तुम्हारा ईमान है, इंकार करते है।' (अल-आराफ़ 7:7)
बहरहाल हज़रत सालेह की मग़रूर व सरकश क़ौम ने उनकी पैग़म्बराना दावत व नसीहत को मानने से इंकार किया और अल्लाह के निशान (मोजज़े)
(अल-आराफ़ 7:59)
का मुतालबा किया, तब सालेह ने अल्लाह के दरबार में दुआ की और कुबूलियत के बाद अपनी क़ौम से फ़रमाया कि तुम्हारा मल्लूब निशान ऊंटनी की शक्ल में यहां मौजूद है। देखो, अगर तुमने इसको तकलीफ़ पहुंचायी तो फिर यही हलाकत का सामान साबित होगा और अल्लाह ने तुम्हारे और उसके दर्मियान पानी के बारी ते कर दी है। एक दिन तुम्हारा है और एक दिन इसका, इसलिए इसमें फ़र्क़ न आए।
कुरआन मजीद ने इसे 'नाकतुल्लाह' (अल्लाह की ऊंटनी) कहा है, ताकि
यह बात नजरों में रहे कि यूं तो तमाम मखलूक अल्लाह ही की मिल्कियत है, मगर समूद ने चूंकि उनको ख़ुदा की एक निशानी की शक्ल में तलब किया था, इसलिए उसको मौजूदा खुसूसियत ने उसको 'अल्लाह की निशानी' का लकब दिलाया, साथ ही उसको 'लकुम आयातिही' (तुम्हारे लिए निशानी) कहकर यह भी बताया कि यह निशानी अपने भीतर ख़ास अहमियत रखती है, लेकिन बदक़िस्मत क़ौम समूद ज़्यादा देर तक इसको बरदाश्त न कर सकी और एक दिन साजिश करके ऊंटनी को हलाक कर डाला। हजरत सालेह को जब यह मालूम हुआ तो आंखों में आंसू लाकर फ़रमाने लगे, बदबख़्त क़ौम ! आख़िर तुझसे सब्र न हो सका। अब अल्लाह के अज़ाब का इंतज़ार कर। तीन दिन के बाद न टलने वाला अज़ाब आएगा और तुम सबको हमेशा के लिए तहस-नहस कर दिया जाएगा।
समूद पर अज़ाब
समूद पर अज़ाब आने की निशानियां अगली सुबह से ही शुरू हो गईं, यानी पहले दिन इन सबके चेहरे इस तरह पीले पड़ गए जैसा कि हर शुरूआती हालत में हो जाया करता है और दूसरे दिन सबके चेहरे लाल थे, गोया ख़ौफ़- दहशत का यह दूसरा दर्जा था और तीसरे दिन इन सबके चेहरे स्याह थे और अंधेरा छाया हुआ था। यह ख़ौफ़ व दहशत का वह तीसरा दर्जा है जिसके बाद मौत का दर्जा रह जाता है।
बहरहाल इन तीन दिनों के बाद वायदा किया गया वक़्त आ पहुंचा और रात के वक़्त एक हैबतनाक आवाज़ ने हर आदमी को उसी हालत में हलाक
कर दिया, जिस हालत में वह था। कुरआन पजीद ने हलाक कर देने आवाज को किसी जगह साईका कड़वार विजली) और किसी जगह (जलप्ला डाल देने वाली चीज), किसी जगह लागिया (दहशतनाक) और कई सेहा (चोख) फरथाया।
एक तरफ समूद पर यह अजाब आया और उनकी बस्तियों को तथ व वर्याद करके सरकशों की सरकशी और घमंडियों का अंजाम जाहिर हुआ। जबकि दूसरी ओर हजरत सालेह के और उनकी पैरवी करने वा मुसलमानों को अल्लाह ने अपनी हिफाजत में ले लिया और उनको स अजाब से महफूज रखा।कुछ इबरते
अल्लाह की सुन्नत यही रही है (मगर अल्लाह की इस सुन्नत से नई अकरम सल्लल्लाहु अलैहिस्सलाम की रिसालत का पैगाम अलग है। इसलिए कि आपने साफ कहा है कि मैंने अल्लाह से दुआ मांगी कि वह मेरी उम्मह (उम्मले दावत हो या उम्मते इजाबत) में अजाब मुसल्लत न फरमाए और अल्लाह तआला ने मेरी दुआ कुबूल फ़रमा ली।) कुरआन मजीद ने इसके तस्दीक इस तरह की है- तर्जुमा- ऐ रसूल! इस हाल में कि तू उनमें मौजूद है अल्लाह तआल
(इन काफ़िरों) पर आम अजाब मुसल्लत न करेगा।' (अल-अंफाल लेकिन जो कौम अपने नबी से इस वायदे पर निशान तलब करे कि अगा उनका मतलूब निशान जाहिर हो गया, तो वे जरूर ईमान लाएंगे, फिर वे ईमान न लाए तो उस कौम की हलाकत यक़ीनी हो जाती है। अल्लाह तआला उसको माफ़ नहीं करता, जब तक कि वह तौबा न कर ले और अल्लाह के दीन को कुबूल न कर ले या अल्लाह के अज़ाब से सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटका दूसरों के लिए इबरत का सबब न बन जाए। यह मोहलिक ग़लती और नाता का धोखा है कि इंसान खुशऐशी, रफ़ाहियत और दुन्यिावी जाह व जलात देखकर यह समझ बैठे कि जिस क्रीम या फ़र्द के पास यह सब कुछ मौजूद है, वह जरूर अल्लाह तआला के साए में है और उनकी खुशऐशी अल्लाह की ख़ुशनूदी की निशानी है।
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